सातवें आसमान पर वेतन आयोग : जिसे नहीं जम रहा हो उसका सख्ती से हिसाब कर दिया जाए

    नीचे लिखे जुमलों से आपमें से ज़्यादातर लोग सहमत होंगे या हो जाएंगे, इसमें कोई ताज्जुब की बात नहीं, आजकल माहौल ही ऐसा बना दिया गया है सरकारी नौकरों के खिलाफ ... ! खैर, इस देश में लोकशाही है और किसी को अपनी बात रखने का हक़ है। किसी सिरफिरे ने कोई बात लिखी, भले ही किसी और तबके के लिए वह बात तकलीफ़देह हो पर आप लोग तो सहमत हो ही गए न ....! तो अब हम भी अपनी बात रखने जा रहे हैं, और ये इल्तजा भी नहीं कि आप मानें ही ....! क्योकि आप तो पहले ही वह मान चुके हैं जो ऊपर लिखा गया है, खैर ....!
     इस देश में सरकारी नौकरी करने वालों कि संख्या की बात हम सबसे पहले करेंगे .....! जिस तरह से प्राइवेट रोजगार के हर क्षेत्र में सिफारिशी लोग घुस कर उस रोजगार का स्तर “बढ़ा” रहे हैं, वह दिन दूर नहीं जब हर साल रजिस्टर्ड होने वाली सौ कंपनियों में से अस्सी बंद होने के कगार पर चली जाएंगी, वर्तमान में ये आंकड़ा सत्तर का है। और ऐसे रोजगार के क्षेत्रों में पत्रकारिता सबसे आगे है। बिना छानबीन किए समाचार को लपकना और उस पूरी स्टोरी बना देना तो इनके बाएँ हाथ की सबसे छोटी उंगली का कमाल है। जबसे वेतन आयोग की रिपोर्ट पूरी होने का ऐलान हुआ है, पाँच स्टोरी फी दिन के हिसाब सात सौ सत्तर स्टोरियाँ छापी गईं पर उद्देश्य वही सड़ा हुआ, अपने पहले से ही बिके हुए न्यूज़ पेपर या चैनल की टीआरपी कैसे बढ़े ....! अब जब सरकार ने अंतिम रिपोर्ट पर मुहर लगा दी और कर्मचारी संगठनों ने प्रतिक्रिया देनी शुरू कर दी तो ऐसा माहौल बनने लगा जैसे कि सरकार के खजाने का सबसे बड़ा बोझ यही हो और कुछ नहीं और सरकारी कर्मचारी देश के सबसे बड़े दुश्मन हों। हाँ, फ़ौजियों को जरूर इस गाली गलौज से बरी कर दिया गया, क्योकि वे बार्डर पर तैनात हैं और दिनरात दुश्मनों से लोहा लेते रहते हैं। कोई भी दो चैनल या अखबार उठा कर देखने पर सरकारी कर्मचारियों कि संख्या एक नहीं मिलेगी, किसी में ३८ लाख, किसी पचास लाख और कहीं तो इसे एक करोड़ तक पहुँचा दिया गया। जबकि आज अगर किसी पत्रकार को खड़ा करके ये पूछ दिया जाए कि सरकारी नौकर की परिभाषा क्या है तो तुरंत बकने लगेगा, जो सरकार की नौकरी करे, वो सरकारी नौकर .....! पत्रकारिता के स्नातक कोर्स में ही पढ़ाया जाता है कि एक समाचार के तीन उद्देश्य होने चाहिए,
    पहला – पाठक को शिक्षित करना, पाठक को सूचित करना और अंत में, पाठक का मनोरंजन करना ....! वर्तमान पत्रकारों की खबर से इनमें से एक भी उद्देश्य पूरा नहीं होता। वेतन आयोग के संबंध में फैला भ्रम इसी की परिणति है। कई तथाकथित अर्थशास्त्रियों को सातवें वेतन आयोग के बजट से ऋण जाल में फंसे आत्महत्या करते किसानों की याद आ गयी और इस बात पर सरकार को लानत भेजी गयी कि इन्हीं पैसों से हम मरे हुए किसानों को जीवित भी कर सकते थे....! हालांकि कुछ माह पहले जब बैंक कर्मियों के वेतन में बढ़ोतरी की गयी थी तब इनमें से किसी को उन मर रहे किसानों की याद नहीं आई थी। इन्हीं अर्थशास्त्रियों के पूर्वजों नें उस समय भी सवाल उठाए थे जब सत्तर के दशक में भारत अपना अन्तरिक्ष कार्यक्रम शुरू करने जा रहा था। उस समय उस कार्यक्रम में पैसा लगाना, कईयों के गले नहीं उतर रहा था। आज उसी की बदौलत जब भारत अच्छी विदेशी मुद्रा अर्जित करने लग गया है तो उन्हीं की नाजायज औलादों में से किसी के मुंह से हमारे काबिल वैज्ञानिकों के पक्ष में दो बोल तक नहीं फूटे।
     जस्टिस माथुर का कहना था कि चिट्ठियाँ आती थीं कि – ‘सा’ब, सैलरी मत बढ़ाना, ये लोग काम नहीं करते’, खुद माथुर साहब को एसी डिब्बे में सफ़ेद चादर नहीं मिली थी – ऐसा खुद उन्होने बताया था। यानि शुरू से ही माथुर साहब ये मान कर चल रहे थे कि सरकारी कर्मचारी काम नहीं करते। हमारा कहना ये है कि माथुर साहब रिटायर्ड जज रहे हैं , उनका फैसला ठीक ही रहा होगा। पर कुछ सवालों के जवाब भी यदि वे देते जाते तो ठीक रहता। अगर सरकारी कर्मचारी काम नहीं कर रहे हैं तो इसका जवाबदेह कौन है ? और अगर ये काम नहीं कर रहे तो फिर कौन काम कर रहा है ? आखिर रेलें चल ही रही हैं, बिजली बोर्डों की हालत खस्ता होते हुए भी बिजली आ ही रही है। जरूरी चिट्ठियाँ और रजिस्टर्ड स्पीड पोस्ट पहुँचते ही हैं, सरकारी बसें चल ही रहीं हैं और आश्चर्य की बात ये है कि देश के ज़्यादातर परिवहन निगम फायदे में ही चल रहे हैं। सरकारी हस्पतालों में पिछले कुछ सालों से डाक्टरों की हाजिरी आश्चर्य जनक रूप से बढ़ गयी है, शायद ऐसा ज्यादा डाक्टरों की उपलब्धता के कारण हुआ है । जो भी हो , अब कोई नहीं कह सकता कि सरकारी डाक्टर हस्पतालों में मौजूद नहीं रहते...। और अगर सरकारी हलक़ों में भ्रष्टाचार इसके बावजूद है तो वेतन कम देने से यह बढ़ेगा कि घटेगा।
     क्या कम वेतन देने से कर्मचारियों की कार्यकुशलता बढ़ेगी ...? या फिर सरकार ने मान ही लिया है कि वह सरकारी कर्मचारियों से चूंकि ज्यादा काम नहीं ले सकती अतः उन्हें उनके काम के अनुपात में ही वेतन दिया जाए। यदि कर्मचारी काम नहीं करते तो सरकार की प्राथमिकता क्या होनी चाहिए – कर्मचारियों से काम करवाना , न कि वेतन कम कर के पैसे बचाना। बहुत से ऐसे सरकारी काम हैं जिनमें कोई कर्मचारी किसी विशेष उद्देश्य के लिए रखे जाते है जबकि उस उद्देश्य के पूरा होने कि नौबत पूरे सेवा काल में एकाध बार या नहीं ही आती है, जैसे – बैंक के चौकीदार, सेक्यूरिटी गार्ड, क्लर्क , अनुवादक आदि। कुछ कर्मचारी ऐसा भी तर्क दे सकते हैं कि हमने अपना आज के काम का कोटा पूरा कर लिया इससे ज्यादा काम हम नहीं करेंगे, या फिर हमें तो ज्यादा वेतन चाहिए ही नहीं तो फिर हम उतना ही काम करेंगे जितने वेतन की हमें जरूरत है। सोचिए कि यदि ऐसा हो जाए तो किसका फायदा होगा ......? कम से कम जनता का तो बिलकुल नहीं ....! और सरकार का नुकसान भी नहीं होगा क्योकि उसके वेतन का पैसा बच रहा है। क्या इससे अच्छा ये नहीं होगा कि अच्छे वेतन के साथ कार्यकुशलता सुनिश्चित करने की जवाबदेही भी तय की जाती जिससे कामचोर कर्मचारियों की पहचान होने के साथ साथ जनता को भी सुविधाएं मिलतीं। मेहनती कर्मचारी भी खुश रहते क्योकि उन्हें अपने वेतन से कोई शिकायत भी नहीं होती।
     पर माथुर साहब की पूर्वधारणा कि – ‘सरकारी कर्मचारी काम नहीं करते’ ने इस बात का फैसला वेतन आयोग के गठन के समय ही कर दिया था कि कर्मचारियों को इस आयोग से क्या मिलेगा। बताया जाता है कि वेतन आयोग ने ढेर सारे कर्मचारी संगठनों और संघों से सुझाव और मशविरे मांगे थे और आयोग को मिलने वाले सुझाव, मशविरे और ज्ञापन, उनके द्वारा मांगी गयी मात्रा से कई गुना थी, पर किसे मालूम था कि कर्मचारियों के खिलाफ लिखी गईं चंद चिट्ठियाँ इन ज्ञापनों, मशविरों और सुझावों पर इस कदर भरी पड़ जाएंगी कि आयोग एक पक्षपात रहित फैसला तक नहीं ले सकेगा।
      अब आते हैं आयोग द्वारा घोषित और पत्रकारों और अर्थशास्त्रियों द्वारा प्रचारित ‘ऐतिहासिक’ वृद्धि पर जो कि इस मायने में सचमुच ऐतिहासिक है कि अब तक के वेतन आयोगों में सबसे कम है। बार बार कहा जा रहा है कि न्यूनतम वेतन को 7000 से बढ़ा कर 18000 कर दिया गया है और इस प्रकार आयोग द्वारा फिटमेंट फॉर्मूले का मान 2.57 (यानी 18000 और 7000 का अनुपात) रखा गया है। यह भी कहा गया कि वेतन में करीब ढाई सौ प्रतिशत कि वृद्धि की गयी है । पर क्या सचमुच इसका लाभ उतना ही मिलेगा जितना दिखाया जा रहा है ? वेतन आयोग से पहले रु 7000 न्यूनतम वेतन वाले को सभी तरह के भत्ते जोड़ कर और कटौतियाँ निकाल कर कुल 15620 रुपए मिलते थे जबकि नए वेतनमान के अनुसार उसे मात्र 17645 रुपए मिलेंगे। स्पष्ट है कि दोनों वेतनों में विशुद्ध अंतर करीब दो हजार रुपयों का है जो महंगाई को स्तर को देखते हुए बहुत कम है। प्रतिशत वृद्धि के पदों में कहा जाए तो मात्र 13% से भी कम, न कि 23.5% जैसा कि बहु प्रचारित है। इसी गणना को दूसरी तरह से करके भी यह सिद्ध किया जा सकता है कि वेतन आयोग द्वारा वेतन निर्धारण के बजाय यदि 50% महंगाई भत्ते को यदि मूल वेतन में मिला दिया जाता तो भी हर सरकारी कर्मचारी उससे ज्यादा का हकदार है जो उसे आयोग द्वारा मिला।
       वर्तमान में 125% महगाई भत्ते (म॰भ॰) के हिसाब से 100 रुपये मूल वेतन वाले कर्मचारी के वेतन में यदि 50% म॰भ॰ सम्मिलित कर लिया जाए तो मूल वेतन 150 हुआ और म॰भ॰ हुआ 75%, अब कुल वेतन निकालने पर हुआ 150 + 150 का 75% जो 262.50 हुआ यानी कि मूल वेतन का 2.62 गुना..... ! वेतन आयोग ने हमें ‘ऐतिहासिक’ फिटमेंट 2.57 दिया है....! मतलब डीए मर्जर से भी कम। अब यदि दोबारा 50% डीए को मर्ज कर दिया जाए तो मूल वेतन हुआ 150 + 150 का 50% = 225 और बचा हुआ डीए हुआ 25%, अब कुल वेतन हुआ 225 + 225 का 25% = 287.50 यानी मूल वेतन का 2.87 गुना .....! इतना तो सरकारी कर्मचारियों को बिना वेतन आयोग के ही मिल जाता। स्पष्ट है कि आयोग के गठन का मूल उद्देश्य था, सरकारी कर्मचारियों पर लगाम लगाना।
       माथुर साहब का एक तर्क यह भी था कि रेलवे कि आय का 90% परिचालन में ही खर्च हो जाता है और यदि वेतन बढ़ा देते तो यह खर्च 96% फीसदी तक पहुँच जाता। अब तथ्य भी माथुर साहब के अलावा सभी जानते होंगे कि परिचालन खर्च कर्मचारियों के वेतन के कारण नहीं बल्कि पहले की सरकारों द्वारा रेलवे के राजनीतिक उपयोग के कारण, जैसे कई सालों तक किराया न बढ़ाना, कई किस्म की रियायतें और किराया सब्सिडी के कारण है। ये तो कर्मचारियों की जी तोड़ मेहनत है कि 10% फिर भी बच जाता है।
      एक अन्य बात और है कि यदि माथुर साहब रेलवे की आय और व्यय को ही वेतन वृद्धि का आधार मानते हैं तो जिन विभागों में प्रत्यक्ष आय नहीं है तो उनके अनुसार वे तो वेतन वृद्धि के हकदार ही नहीं हुए। इस तरह तो भारी विसंगतियां पैदा हो जाएंगी वेतन निर्धारण में!
      फ़ौजियों के प्रति पूरे सम्मान भाव को रखते हुए एक बहुत खतरनाक बात की तरफ ध्यान दिलाना चाहूँगा। वह बात है जनमानस में फ़ौजियों के अलावा अन्य सरकारी कर्मचारियों के प्रति उत्पन्न होती घृणा का भाव....! एक रैंक एक पेंशन लागू होते समय फ़ौजियों की असंतुष्टि के समय सारा देश उनके सुर में सुर में बोल रहा था पर वही देश आज सातवें वेतन आयोग की विसंगतियों पर सरकारी कर्मचारियों के आंदोलन पर नाक भौं सिकोड़ रहा है। लोग ये क्यों भूल जाते हैं कि वे अगर सीमा पर हमारी रखवाली करते हैं तो वहाँ सिर्फ अकेले वे ही नहीं है, उनके राशन की व्यवस्था करने वाला दुकानदार भी वहीं रहता है, उनके बच्चों को पढ़ाने वाला टीचर उनके साथ रहकर ही स्कूल चलाता है। उनके वेतन को जमा करने वाला बैंक भी वहीं पर है। उनकी चिट्ठियाँ उनके अपनों तक पहुंचाने वाला पोस्ट ऑफिस भी उनके बैंक के कैम्पस में ही है। सुदूर वीराने में स्थित रेलवे स्टेशन तक पहुंचाने वाली सरकारी बस के ड्राईवर, कंडक्टर और बस स्टेशन के और स्टाफ कहीं चहल पहल वाली जगह में नहीं बल्कि उनके साथ उसी उजाड़ बियाबान को अपना आशियाना बना लिया है। और रेलवे स्टेशन का स्टाफ ....? उसके भी परिवार वालों नें देश के उस अंतिम छोर को सैनिकों के साथ अपना आशियाना बना लिया है....! किसी ने ध्यान दिया कि सैनिकों के साथ रहने वाले जितने भी लोगों के नाम हमने गिनाए हैं, क्या वे सभी प्राइवेट नौकरी करने वाले हैं, जिनका गुणगान यह कह कर किया जा रहा था कि सरकारी नौकरी वाले एक दिन भी उनके जैसा काम नहीं कर सकते। वे सभी सरकारी नौकर हैं जो देश के उस अंतिम छोर पर हमारे सैनिक भाइयों के साथ देश सेवा में लगे हुए हैं जिसका वे अगर प्रतिकार अगर नहीं चाहते तो सिर्फ इसलिए नहीं कि उन्हें सातवें या दसवें वेतन आयोग से बड़ी उम्मीदें हैं ....! बल्कि इसलिए कि उन्हें अपने सैनिक भाइयों से और अपने देश से बहुत आशाएँ हैं। अपनों से मिलने के लिए देश के उस छोर से उन्हें आना पड़ता है जहां से अपने घर पहुँचने में ही उन्हें तीन और कहीं कहीं तो चार दिन लग जाते हैं। उसके बदले में वे कामचोर, हरामखोर और मुफ्त की रोटी तोड़ने वाले जैसी गालियां भी सुनते हैं जो यकीनन उनके मुँह पर कोई नहीं देता पर वो ये जानते हैं कि वे किन्हें लक्ष्य कर के सुनाई जा रहीं हैं। वे सैनिकों के मान सम्मान के अधिकारी नहीं हैं और न ही ट्रेन का कोई डिब्बा भी उनके लिए आरक्षित होता है। उन्हें तो सिर्फ साल भर में आठ आकस्मिक व तीस अर्जित अवकाश का सहारा मिलता है जिसकी सीमा में वे अपनों से मिलकर अपना दुख दर्द बाँट सकते हैं। सैनिकों को मिलने वाले दो माह के आकस्मिक अवकाश व ट्रेन के आरक्षण के कोटे का सुख उनके नसीब में कहाँ। उनके नसीब में बस वहीं गालियां लिखी हैं जो मैं ऊपर बता चुका हूँ जिन्हें हर सरकारी कर्मचारी तिरछी मुस्कान के साथ स्वीकार करता है। उसकी स्वीकृति को हम अपने गालियों द्वारा लगाए गए आरोप की स्वीकारोक्ति समझ बैठते हैं जो हमारी उसे दी जाने वाली अगली गंदी गाली का स्तर और भी नीचा गिरा देता है। आश्चर्य है कि फिर भी इस देश के हर पाँच में से चार जवान इस गलीज़ काम और अमले में घुसना चाहते हैं जिसमें घुसने से पहले वह इसे निहायत ही गिरा हुआ काम समझते थे।
      प्राइवेट नौकरियों का गुणगान करने वाले कभी अरुणाचल प्रदेश के दांबुक में जाकर देखें, अनीनी में जाकर देखें, मिज़ोरम के लुंगलई में जाकर देखें, मेघालय के सोहरा में जाकर देखें, उन्हें उनके प्रिय प्राइवेट सैक्टर के न तो पेट्रोल पम्प मिलेंगे, न ही एयरटेल और वोडाफ़ोन और न ही आईसीआईसीआई और न ही एचडीएफसी बैंक ही मिलेंगे, क्यों? क्योंकि इन बैंकों को लाभ चाहिए, टेलीफ़ोन ऑपरेटरों को मोटी कमाई चाहिए और पेट्रोल पम्प को डेली का मोटा कोटा चाहिए और वह सब कुछ दो तीन हजार की आबादी वाली जगहों से कैसे पूरा होगा? आप कभी इन जगहों पर घूमने आयें तो आपका टेलीफ़ोन तभी चालू रह पाएगा जब आप कुख्यात (भाई साहब नहीं लगेगा) बीएसएनएल नेटवर्क जो एक सरकारी नेटवर्क है, रखेंगे। पैसों की जरूरत होगी तो आपको कोई प्राइवेट बैंक का एटीएम नहीं, बल्कि सरकारी बैंकों का एटीएम ही मिलेगा। ये हम सरकारी सेवक ही हैं जो आपके और हम सबके प्यारे फ़ौजियों का साथ अंतिम साँस तक निभाते हैं वह भी बिना आपकी तारीफ की उम्मीद किए हुए। हर जमात में अच्छे बुरे लोग होते हैं पर उस वजह से हम किसी जमात को अच्छा या बुरा तो नहीं कह सकते न ....! तो फिर ये कहर सिर्फ सरकारी सेवकों पर ही नाज़िल क्यों ....? भगवान करे, कल आपके परिवार में भी किसी को सरकारी नौकरी नसीब हो उस दशा में आपका सरकारी अमले के बारे में ख्याल यही रहेगा या बदल जाएगा ...! यकीनन बदल जाएगा क्योंकि तब किसी सरकारी नौकर की मजबूरियों को आप करीब से देखेंगे। जब ये खयालात बदलेंगे तो इस देश, समाज और हालात को बदलते देर ही कितनी लगेगी।


#buttons=(Accept !) #days=(20)

Our website uses cookies to enhance your experience. Learn More
Accept !
To Top