समाजवादी पार्टी ने अपने 191 प्रत्याशियों की सूची जारी कर कांग्रेस को पूरी तरह बरबाद होने की राह पर धकेल दिया है। सहारनपुर, गाजियाबाद, नोएडा, बुलंदशहर और मथुरा जैसे जिलों में कई सीटों पर कांग्रेस की अच्छी दावेदारी थी और कई सीटों पर अपने विधायक थे। इन सब सीटों पर सपा के नए बॉस अखिलेश यादव ने अपने प्रत्याशी उतार दिए हैं। यह फैसला जानबूझकर इतनी देर से किया गया कि कांग्रेस के पास अब कोई विकल्प नहीं बचा है। कहने को पार्टी अब भी अपने प्रत्याशी खड़े कर सकती है, लेकिन असल में उनमे न अब जोश होगा और न उनके प्रति जनता में ही कोई खास उत्साह दिखेगा।
दरअसल कांग्रेस पूरी तरह समाजवादी पार्टी के हाथों में खेल गई और अखिलेश ने अपने पिता की ही तरह चौंकाने वाली राजनीति कर दी। कांग्रेस ने उस एहतियात को बरतना उचित नहीं समझा, जिसे कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी पिछले 20 साल से बरततीं आ रहीं थी। वह एहतियात था समाजवादी पार्टी से या तो कोई रिश्ता न रखना, या फिर रखना तो अपनी शर्तों पर रखना।
कांग्रेस के हाल पर नजर डालें तो अगस्त से पार्टी ‘27 साल यूपी बेहाल’ के नारे के साथ चली थी। राहुल गांधी ने एक महीने तक गांव-गांव घूमकर लोगों से संवाद किया था और किसानों से कर्ज माफी का सीधा वादा किया था। इस यात्रा से बहुत से ऐसे स्थानीय नेता कांग्रेस की तरफ आकर्षित हुए थे, जिन्हें बाकी दलों में सम्मानजनक जगह नहीं मिल पा रही थी। इसके अलावा सुस्त पड़े कांग्रेसी भी मैदान में आने लगे थे।
लेकिन जब यह मूमेंटम बढऩे लगा तभी अखिलेश की ओर से गठबंधन की बातें उछाली गईं। सपा से गठबंधन के धुर विरोधी प्रदेश अध्यक्ष निर्मल खत्री को हटा दिया गया। उनकी जगह पुराने समाजवादी राज बब्बर को कांग्रेस की कमान मिली। घटनाक्रम पर नजर रखने वाले जानते हैं कि शुरुआती मेहनत के बाद प्रशांत किशोर का मन भी बदल गया था। इसके बाद पीके, राज बब्बर, गुलाम नबी आजाद और संजय सिंह ने अपना मन गठबंधन के पक्ष में बना लिया था। इन लोगों के दबाव में अतत: राहुल गांधी भी गठबंधन के पक्ष में झुक गए. जिस दिन प्रशांत किशोर लंबी कार से मुलायम सिंह के दिल्ली वाले घर से बाहर निकलते दिखे, उसी दिन से कांग्रेसियों के हौसले पस्त पडऩे लगे। और जैसे चुनाव पास आता गया कांग्रेस और जनता ने यह मान लिया कि गठबंधन हो रहा है।
ऐसे में तमाम कांग्रेस प्रत्याशी और कार्यकर्ता घर बैठ गए। सिर्फ वही कांग्रेसी खुश रहे जिन्हें टिकट की उम्मीद थी। इस प्रक्रिया में सबसे बड़ा नुकसान यह हुआ कि हर चुनाव से पहले कांग्रेस को जनाधार वाले ऐसे 20-25 लोग मिल जाते थे, जो बाकी पार्टियों से निराश होते थे और वक्ती जरूरत के तौर पर कांग्रेस में आ जाते थे। इन लोगों की जीत से ही कांग्रेस को 25-30 विधानसभा सीटेंं पिछले 25 साल से मिल रही थीं। लेकिन जब दो महीने पहले से कांग्रेस गठबंधन के भंवर में फंस गई तो ऐसे लोग भी कांग्रेस को नहीं मिले।
अब हालत यह है कि कांग्रेस के बुझे हुए प्रत्याशी, झुके हुए कंधों के साथ मैदान में आएंगे। हो सकता है यूपी विधानसभा में कांग्रेस अब तक का सबसे खराब प्रदर्शन करे। यह असर यहीं खत्म हो जाता तो भी गनीमत थी, लेकिन यह 2019 के लोकसभा चुनाव में अपना असर दिखाएगा। क्योंकि प्रशांत किशोर की टीम ने जिन हजारों टिकटार्थियों के दो महीने तक लाखों रुपये खर्च कराए और बाद में उन्हें घनघोर निराशा में ला पटका, वे 2019 में कांग्रेस का पल्ला थामने से पहले हजार बार सोचेंगे। जमीनी लड़ाई छोडक़र किराए की कोख के मोह में फंसी कांग्रेस उत्तर प्रदेश में बहुत बड़ा गच्चा खा गई है।
दरअसल कांग्रेस पूरी तरह समाजवादी पार्टी के हाथों में खेल गई और अखिलेश ने अपने पिता की ही तरह चौंकाने वाली राजनीति कर दी। कांग्रेस ने उस एहतियात को बरतना उचित नहीं समझा, जिसे कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी पिछले 20 साल से बरततीं आ रहीं थी। वह एहतियात था समाजवादी पार्टी से या तो कोई रिश्ता न रखना, या फिर रखना तो अपनी शर्तों पर रखना।
कांग्रेस के हाल पर नजर डालें तो अगस्त से पार्टी ‘27 साल यूपी बेहाल’ के नारे के साथ चली थी। राहुल गांधी ने एक महीने तक गांव-गांव घूमकर लोगों से संवाद किया था और किसानों से कर्ज माफी का सीधा वादा किया था। इस यात्रा से बहुत से ऐसे स्थानीय नेता कांग्रेस की तरफ आकर्षित हुए थे, जिन्हें बाकी दलों में सम्मानजनक जगह नहीं मिल पा रही थी। इसके अलावा सुस्त पड़े कांग्रेसी भी मैदान में आने लगे थे।
लेकिन जब यह मूमेंटम बढऩे लगा तभी अखिलेश की ओर से गठबंधन की बातें उछाली गईं। सपा से गठबंधन के धुर विरोधी प्रदेश अध्यक्ष निर्मल खत्री को हटा दिया गया। उनकी जगह पुराने समाजवादी राज बब्बर को कांग्रेस की कमान मिली। घटनाक्रम पर नजर रखने वाले जानते हैं कि शुरुआती मेहनत के बाद प्रशांत किशोर का मन भी बदल गया था। इसके बाद पीके, राज बब्बर, गुलाम नबी आजाद और संजय सिंह ने अपना मन गठबंधन के पक्ष में बना लिया था। इन लोगों के दबाव में अतत: राहुल गांधी भी गठबंधन के पक्ष में झुक गए. जिस दिन प्रशांत किशोर लंबी कार से मुलायम सिंह के दिल्ली वाले घर से बाहर निकलते दिखे, उसी दिन से कांग्रेसियों के हौसले पस्त पडऩे लगे। और जैसे चुनाव पास आता गया कांग्रेस और जनता ने यह मान लिया कि गठबंधन हो रहा है।
ऐसे में तमाम कांग्रेस प्रत्याशी और कार्यकर्ता घर बैठ गए। सिर्फ वही कांग्रेसी खुश रहे जिन्हें टिकट की उम्मीद थी। इस प्रक्रिया में सबसे बड़ा नुकसान यह हुआ कि हर चुनाव से पहले कांग्रेस को जनाधार वाले ऐसे 20-25 लोग मिल जाते थे, जो बाकी पार्टियों से निराश होते थे और वक्ती जरूरत के तौर पर कांग्रेस में आ जाते थे। इन लोगों की जीत से ही कांग्रेस को 25-30 विधानसभा सीटेंं पिछले 25 साल से मिल रही थीं। लेकिन जब दो महीने पहले से कांग्रेस गठबंधन के भंवर में फंस गई तो ऐसे लोग भी कांग्रेस को नहीं मिले।
अब हालत यह है कि कांग्रेस के बुझे हुए प्रत्याशी, झुके हुए कंधों के साथ मैदान में आएंगे। हो सकता है यूपी विधानसभा में कांग्रेस अब तक का सबसे खराब प्रदर्शन करे। यह असर यहीं खत्म हो जाता तो भी गनीमत थी, लेकिन यह 2019 के लोकसभा चुनाव में अपना असर दिखाएगा। क्योंकि प्रशांत किशोर की टीम ने जिन हजारों टिकटार्थियों के दो महीने तक लाखों रुपये खर्च कराए और बाद में उन्हें घनघोर निराशा में ला पटका, वे 2019 में कांग्रेस का पल्ला थामने से पहले हजार बार सोचेंगे। जमीनी लड़ाई छोडक़र किराए की कोख के मोह में फंसी कांग्रेस उत्तर प्रदेश में बहुत बड़ा गच्चा खा गई है।
(Atul Mohan Singh)