10 पैसे की दवा 35 रुपए में बिक रही, प्रिंट और खरीद में 350 गुना अंतर
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10 पैसे की दवा 35 रुपए में बिक रही, प्रिंट और खरीद में 350 गुना अंतर

सस्ती दवाइयां उपलब्ध करवाने कानून में संशोधन की तैयारी
   नई दिल्ली।। सरकार मरीजों को सस्ती दवाएं उपलब्ध करवाने के लिए कानून में संशोधन की तैयारी कर रही है। इसके बाद डॉक्टर्स को मरीजों के लिए सिर्फ जेनेरिक दवा लिखनी होंगी, न कि किसी विशेष ब्रांड या कंपनी की। इसके बाद भी मरीजों को सस्ती दवाएं मिलने लगेंगी, इसकी कोई गारंटी नहीं है, क्योंकि जेनेरिक दवाओं के प्रिंट रेट यानी इन दवाओं पर छपने वाली कीमत पर कोई नियंत्रण नहीं है। आईएमए के सदस्य और मेडिकल कॉलेज में प्रोफेसर डॉक्टर हेमंत जैन ने भास्कर APP को बताया कि ब्रांडेड मेडिसिन पर फार्मासिस्ट को 5 से 20 प्रतिशत तक कमीशन मिलता है, पर जेनेरिक मेडिसिन की प्रिंट रेट और रीटेलर की खरीद कीमत में 50 गुना से 350 गुना तक का अंतर होता है। 10 पैसे की बी कॉम्प्लेक्स 35 रुपए तक में बिकती है। इसका आम जनता या मरीजों को उतना फायदा नहीं मिलता, जितना मिलना चाहिए। ऐसे में सरकार को जेनेरिक मेडिसिन के प्रिंट रेट पर भी लगाम लगाने की जरूरत है, वरना जनता को कोई फायदा नहीं होने वाला।
    आम तौर पर सभी दवाएं एक तरह का "केमिकल सॉल्ट' होती हैं। इन्हें शोध के बाद अलग-अलग बीमारियों के लिए बनाया जाता है। जेनेरिक दवा जिस सॉल्ट से बनी होती है, उसी के नाम से जानी जाती है। जैसे- दर्द और बुखार में काम आने वाले पैरासिटामोल सॉल्ट को कोई कंपनी इसी नाम से बेचे तो उसे जेनेरिक दवा कहेंगे। वहीं, जब इसे किसी ब्रांड जैसे- क्रोसिन के नाम से बेचा जाता है तो यह उस कंपनी की ब्रांडेड दवा कहलाती है। चौंकाने वाली बात यह है कि सर्दी-खांसी, बुखार और बदन दर्द जैसी रोजमर्रा की तकलीफों के लिए जेनरिक दवा महज 10 पैसे से लेकर डेढ़ रुपए प्रति टैबलेट तक में उपलब्ध है। ब्रांडेड में यही दवा डेढ़ रुपए से लेकर 35 रुपए तक पहुंच जाती है।
सरकारी अस्पतालों में मिलने वाली दवाओं की कीमतों में भी भारी अंतर:-
    लोगों को सस्ती दवाएं उपलब्ध करवाने और सरकारी नीतियों में बदलाव को लेकर काम कर रहे जन स्वास्थ्य अभियान के डॉ. इंद्रनील मुखोपाध्याय बताते हैं- जेनेरिक दवाओं को लेकर भारत और विदेशों में काफी अंतर है। 2007 के बाद से पेटेंट कानून में कोई प्रभावी संशोधन नहीं हुआ। दूसरी बड़ी बात यह है कि सरकारी अस्पतालों में मिलने वाली दवाओं की कीमतों में भी भारी अंतर होता है। खास तौर पर इनकी प्रिंट रेट और खरीद कीमत में भारी अंतर होता है। ऐसे में सरकार को इन दवाओं की एवरेज प्राइसिंग करनी चाहिए। इससे दवाओं की कीमतों में बड़ा फर्क आ जाएगा। अभी किसी भी मरीज का दवाओं पर औसत खर्च 180% ज्यादा है। दवा कीमतों पर नियंत्रण के बाद इसमें भारी कमी आ जाएगी।
    डॉ. मुखोपाध्याय बताते हैं कि जेनेरिक दवा ब्रांडेड भी होती है। एक ही कंपनी जेनेरिक और ब्रांडेड, दोनों दवाएं बनाती है, लेकिन उनकी कीमतों में काफी अंतर होता है। ऐसे में अगर सरकार लोगों को या मरीजों को सस्ती दवाएं उपलब्ध करवाना चाहती है तो उनकी कीमतों पर नियंत्रण जरूरी है। जेनेरिक दवाओं के मामले में भी बड़ा खेल होता है, खासतौर पर सरकारी खरीद या अस्पतालों में खरीदी जाने वाली दवाओं के मामलों में। ऐसे में इनकी कीमतों पर नियंत्रण ही मरीजों को सस्ती दवाएं मिलने का रास्ता खोल सकता है।
बड़ी बीमारियों से जुड़ी दवाओं के ज्यादातर पेटेंट बड़ी कंपनियों के पास:-
    कई जानलेवा बीमारियों जैसे एचआईवी, लंग कैंसर, लीवर कैंसर जैसी बीमारियों में काम आने वाली दवाओं के ज्यादातर पेटेंट बड़ी-बड़ी कंपनियों के पास हैं। वे इन्हें अलग-अलग ब्रांड से बेचती हैं। अगर यही दवा जेनेरिक में उपलब्ध हो तो इलाज पर खर्च 200 गुना तक घट सकता है। जैसे- एचआईवी की दवा टेनोफिविर या एफाविरेज़ की ब्रांडेड दवा का खर्च 2,500 डॉलर यानी करीब 1 लाख 75 हजार रुपए है, जबकि जेनरिक दवा में यही खर्च 12 डॉलर यानी महज 840 रुपए महीने तक हो सकता है। हालांकि, इन बीमारियों का इलाज ज्यादातर सुपर स्पेशियलिटी अस्पतालों में होता है। ऐसे में ये दवाएं इन अस्पतालों में या वहां के केमिस्ट के पास ही मिल पाती हैं।
- नोवार्टिस की कैंसर की दवा ग्लीवियो- इमेटिनिब मिसाइलेट का एक महीने का खर्च 2,158 डॉलर यानी करीब 1.51 लाख रुपए पड़ता है, जबकि जेनरिक रूप में इसी दवा का खर्च 174 डॉलर प्रति माह (12,180 रुपए) है, यानी 12 गुना या 92% से भी कम।
- ऐसे ही बेयर की कैंसर ड्रग सोराफेनिब टोसाइलेट, जिसे वह नेक्सावर के नाम से बेचती है, उसका एक महीने का खर्च करीब 5,030 डॉलर है, जबकि जेनरिक दवा लेने पर यही खर्च महज 122 डॉलर प्रति माह रह जाता है।
ब्रांडेड दवा पर 10-15 साल में 5,600 करोड़ रुपए तक खर्च करती हैं कंपनियां:-
     जर्नल ऑफ हेल्थ इकोनॉमिक्स के मुताबिक, एक पेटेंट इनोवेटर को उस उत्पाद पर रिसर्च के दौरान किए गए खर्च या लागत को वसूलने और उससे लाभ हासिल करने की अनुमति देता है। जर्नल की रिपोर्ट के मुताबिक, किसी भी दवा के इनोवेटर या कंपनी उस दवा को बनाने से लेकर बाजार में उतारने और उसके बाद के 10-15 साल के दौरान करीब 80 करोड़ डॉलर यानी करीब 5,600 करोड़ रुपए खर्च करती है। ऐसे में पेटेंट के 20 साल के दौरान उसे इस खर्च को वसूलने और मुनाफा कमाने का मौका मिल जाता है।
असरः एमआर, फील्ड स्टाफ जैसी लाखों नौकरियों पर खतरा:-
    डॉ. हेमंत जैन और डॉ. मुखोपाध्याय का कहना है कि अगर जेनेरिक दवा लिखना अनिवार्य होता है तो इसके साथ-साथ फार्मा सेक्टर में हजारों नौकरियों पर भी खतरा पैदा हो जाएगा। इनके मुताबिक, एक दवा को कई कंपनियां बनाती हैं। उनके प्रचार-प्रसार या उन्हें प्रमोट करने के लिए भारी भरकम स्टाफ रखती है। इनमें सबसे ज्यादा मेडिकल रिप्रेजेंटेटिव (एमआर) हैं, जो डॉक्टर्स के पास विजिट कर उन्हें अपनी कंपनी की दवा लिखने को कहते हैं। कई डॉक्टर्स को इसके लिए बाकायदा कमीशन या महंगे-महंगे गिफ्ट तक दिए जाते हैं। ऐसे में डॉक्टर जब सिर्फ जेनेरिक दवा लिखेंगे, तो यह सब करने की जरूरत नहीं पड़ेगी। इसका दूसरा असर यह होगा कि ब्रांडिंग खत्म हो जाएगी तो दवा कंपनियों को प्रचार-प्रसार के लिए स्टाफ भी कम रखना पड़ेगा। कई लाख मेडिकल रिप्रेजेंटेटिव्ज़ की नौकरियां खतरे में आ जाएंगी। फार्मा और मेडिकल सेक्टर से जुड़ी डॉकप्लेक्सस के मुताबिक, बड़ी कंपनियों में से प्रत्येक अपने उत्पादों के प्रचार-प्रसार के लिए 5 हजार से ज्यादा फील्ड स्टाफ रखती है। इसके अलावा फार्मा कंपनियां कुल बजट का 20% फील्ड स्टाफ की भर्ती और खर्च का 60% फील्ड स्टाफ और उनसे जुड़ी गतिविधियों पर खर्च करती हैं।
डॉक्टर्स इस योजना के विरोध में:-
    इसका दूसरा पहलू भी है। ज्यादातर डॉक्टर्स सरकार की इस योजना का विरोध कर रहे हैं। वे आशंका जता रहे हैं कि ऐसे किसी कानून के लागू होने के बाद दवा से जुड़ी सभी शक्तियां केमिस्ट के हाथों में चली जाएंगी। उनकी दलील है कि डॉक्टर के जेनेरिक दवा लिखने के बाद केमिस्ट तय करेगा कि मरीज को कौन-सी दवा देनी है। ऐसी स्थिति में वह दवा की गुणवत्ता की परवाह किए बिना वही दवा देगा, जिसकी बिक्री से उसे अधिक मार्जिन या मुनाफा हासिल होगा। फार्मा सेक्टर से जुड़े सूत्र बताते हैं कि इसमें डॉक्टर्स को तो कोई नुकसान नहीं होगा, क्योंकि उनके पास तो मरीज आते रहेंगे, लेकिन जनता को अच्छी गुणवत्ता की जेनेरिक दवा मिलेगी, इसकी कोई गारंटी नहीं है। इसके बाद दवा कंपनियां सीधे स्टॉकिस्ट या केमिस्ट से संपर्क करेंगी और उसे अपनी दवा बिक्री के लिए कई तरह के लालच दे सकती हैं, जिसका नुकसान आखिरकार आम जनता को उठाना पड़ सकता है। ऐसे में सरकार को इस दिशा में भी सोच-विचार करना चाहिए।
जेनेरिक दवा के बारे में वो सब कुछ जो आप जानना चाहते हैं:-
जेनेरिक दवा क्या होती है?
    आम तौर पर सभी दवाएं एक तरह का "केमिकल सॉल्ट' होती हैं। इन्हें शोध के बाद अलग-अलग बीमारियों के लिए बनाया जाता है। जेनेरिक दवा जिस सॉल्ट से बनी होती है, उसी के नाम से जानी जाती है। जैसे- दर्द और बुखार में काम आने वाले पैरासिटामोल सॉल्ट को कोई कंपनी इसी नाम से बेचे तो उसे जेनेरिक दवा कहेंगे। वहीं, जब इसे किसी ब्रांड (जैसे- क्रोसिन) के नाम से बेचा जाता है तो यह उस कंपनी की ब्रांडेड दवा कहलाती है।
क्या जेनरिक और ब्रांडेड दवा की क्वालिटी में फर्क होता है?
- आम तौर पर इनमें कोई फर्क नहीं होता, लेकिन देश में ऐसा कोई डाटा उपलब्ध नहीं है जो ब्रांडेड और जेनेरिक दवाओं की गुणवत्ता की तुलना कर सके। हालांकि गैर-ब्रांडेड दवा खासकर सरकार द्वारा खरीदी जाने वाली कुछ दवाओं में गुणवत्ता की कमी सामने आई थी।
- 2012 की एक ऑडिट रिपोर्ट के मुताबिक 2010-11 में सेना के मेडिकल स्टोर्स के लिए खरीदी गई 31% दवा निम्न स्तर की थी। 2006-07 में यह आंकड़ा करीब 15% था।
- ब्यूरो ऑफ फार्मा पीएसयूज ऑफ इंडिया (बीपीपीआई) की एक रिपोर्ट के मुताबिक, जनवरी 2018 से जून 2019 के बीच जेनरिक दवाइयों की जांच की गई तो 18 फार्मा कंपनियों के 25 बैचों की दवाएं गुणवत्ता के लिहाज से सही नहीं थीं। इनमें डायबिटीज और हाइपरटेंशन (बीपी) जैसी बीमारियों की दवाएं भी शामिल हैं।
जेनेरिक दवा ब्रांडेड की तुलना में सस्ती क्यों होती हैं?
    जेनेरिक दवाएं ब्रांडेड की तुलना में 10 से 20 गुना तक सस्ती होती हैं। दरअसल, फार्मा कंपनियां ब्रांडेड दवाइयों की रिसर्च, पेटेंट और विज्ञापन पर काफी पैसा खर्च करतीं हैं। जबकि जेनेरिक दवाइयों की कीमत सरकार तय करती है और इसके प्रचार-प्रसार पर ज्यादा खर्च भी नहीं होता।
जेनेरिक दवा कहां और कैसे मिलती है?
     ब्यूरो ऑफ फार्मा पीएसयूज ऑफ इंडिया पर प्रधानमंत्री जन औषधि योजना को लागू करने की जिम्मेदारी है। इसमें दवाओं को कम कीमत पर मुहैया कराया जाता है। इससे जुड़े जन औषधि केंद्र पर ज्यादातर जेनेरिक दवाइयां ही बेची जाती हैं। देशभर में करीब 5,395 जन औषधि केंद्र हैं, जहां कैंसर सहित कई बीमारियों की करीब 900 दवाइयां मिलती हैं। इसके अलावा आप अपने डॉक्टर से भी जेनेरिक दवा लिखने को कह सकते हैं। इसके बाद आप मेडिकल स्टोर्स या केमिस्ट से भी ब्रांडेड की जगह अच्छी क्वालिटी की जेनेरिक दवा की मांग कर सकते हैं।
जेनरिक दवाओं की वजह से हमने 5 साल में 2,000 करोड़ रुपए बचा लिए:-
    केंद्र सरकार ने दवाओं की कीमत पर लगाम लगाने के लिए एक हजार से अधिक दवाइयों की बिक्री कीमत तय की है। साथ ही दिल के मरीजों के लिए मेडिकल खर्च को भी कम किया है। पिछले महीने सरकार ने लोकसभा में बताया कि जेनेरिक दवाओं ने आम जनता के करीब 2,000 करोड़ रुपए बचाने में मदद की है। रसायन और उर्वरक राज्य मंत्री मनसुख मंडाविया ने सदन में कहा, "प्रधानमंत्री भारतीय जन औषधी योजना (पीएमबीजेपी) के तहत जेनरिक दवाएं बेची जा रही हैं, जो संबंधित दवाओं के शीर्ष तीन ब्रांडों की औसत कीमत से करीब 50-90% सस्ती हैं।' उन्होंने यह भी बताया कि पिछले 5 साल में करीब 5,028 पीएमबीजेपी केंद्र खोले गए हैं। इस योजना में 900 दवाएं और 154 सर्जिकल व अन्य वस्तुएं शामिल हैं। इनमें से 714 दवाएं और 53 सर्जिकल वस्तुएं बिक्री के लिए उपलब्ध हैं।
इलाज खर्च के कारण हर साल 3 करोड़ लोग गरीबी रेखा से नीचे चले जाते हैं:-
    एक अनुमान के मुताबिक, किसी भी मरीज के इलाज के दौरान होने वाले खर्च का 70% अकेले दवाओं पर खर्च हो जाता है। सरकार ने पिछले महीने लोकसभा में एक सवाल के जवाब में बताया कि इलाज और दवा पर होने वाले खर्च की वजह से देश में हर साल 3 करोड़ 8 लाख लोग गरीबी रेखा से नीचे चले जाते हैं।
फार्मा सेक्टर में भारत की स्थिति
- देश में फार्मा इंडस्ट्री 1.20 लाख करोड़ रुपए से ज्यादा की है और इसकी सालाना ग्रोथ 11% है।
- देश में सालाना करीब 1.27 लाख करोड़ की दवाएं बेची जाती हैं, इसमें 75% से ज्यादा हिस्सा जेनरिक दवाओं का है।
- भारत सस्ती यानी जेनरिक दवाइयों का सबसे बड़ा एक्सपोर्टर है। दुनिया भर की डिमांड की 20% दवाइयां भारत सप्लाई करता है। अमेरिका में 40% और यूके में 25% दवाइयां भारत सप्लाई करता है।
- 2018-19 में देश से 1,920 करोड़ डॉलर की दवाइयां एक्सपोर्ट की गईं। इसमें पिछले वित्त वर्ष की तुलना में 11% की बढ़ोतरी हुई।
- भारत से कुल एक्सपोर्ट की 30% दवा अमेरिका, 19% अफ्रीका और 16% दवा यूरोपीय देशों में एक्सपोर्ट की गई। दुनियाभर में कुल वैक्सिन डिमांड का 50% भारत से सप्लाई होता है।
- इनके अलावा दक्षिण अफ्रीका, रूस, ब्राजील, नाइजीरिया और जर्मनी में भी भारतीय दवाएं एक्सपोर्ट की गईं।

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