'सनातन' का अर्थ है - शाश्वत या 'हमेशा बना रहने वाला', अर्थात् जिसका न आदि है न अन्त।सनातन धर्म मूलत: भारतीय धर्म है, जो किसी ज़माने में पूरे वृहत्तर भारत तक व्याप्त रहा है, जिस बातों का शाश्वत महत्व हो वही सनातन कही गई है, जैसे सत्य सनातन है, ईश्वर ही सत्य है, आत्मा ही सत्य है, मोक्ष ही सत्य है और इस सत्य के मार्ग को बताने वाला धर्म ही सनातन धर्म भी सत्य है, वह सत्य जो अनादि काल से चला आ रहा है और जिसका कभी भी अंत नहीं होगा वह ही सनातन या शाश्वत है, जिनका न प्रारंभ है और जिनका न अंत है उस सत्य को ही सनातन कहते हैं, यही सनातन धर्म का सत्य है।
मित्रों, ध्यान से पढ़े, ऎसी प्रस्तुतियां बहुत कम पढ़ने को मिलती हैं, वैदिक या हिंदू धर्म को इसलिये सनातन धर्म कहा जाता है, क्योंकि? यही एकमात्र धर्म है जो ईश्वर, आत्मा और मोक्ष को तत्व और ध्यान से जानने का मार्ग बताता है, आप ऐसा भी कह सकते हो कि मोक्ष का कांसेप्ट इसी धर्म की देन हैं, एकनिष्ठता, योग, ध्यान, मौन और तप सहित यम-नियम के अभ्यास और जागरण मोक्ष का मार्ग है, अन्य कोई मोक्ष का मार्ग नहीं है, मोक्ष से ही आत्मज्ञान और ईश्वर का ज्ञान होता है, यही सनातन धर्म का सत्य है।
सनातन धर्म के मूल तत्व सत्य, अहिंसा, दया, क्षमा, दान, जप, तप, यम-नियम हैं जिनका शाश्वत महत्व है, अन्य प्रमुख धर्मों के उदय के पूर्व वेदों में इन सिद्धान्तों को प्रतिपादित कर दिया गया था- "असतो मा सदगमय, तमसो मा ज्योर्तिगमय, मृत्योर्मा अमृतं गमय" यानी हे ईश्वर, मुझे असत्य से सत्य की ओर ले चलो, अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलो, मृत्यु से अमृत की ओर ले चलो।
जो लोग उस परम तत्व परब्रह्म परमेश्वर को नहीं मानते हैं वे असत्य में गिरते हैं, असत्य से जीव मृत्युकाल में अनंत अंधकार में पड़ जाता हैं, उनके जीवन की गाथा भ्रम और भटकाव की ही गाथा सिद्ध होती है, वे कभी अमृत्व को प्राप्त नहीं होते, मृत्यु आये इससे पहले ही सनातन धर्म के सत्य मार्ग पर आ जाने में ही भलाई है, अन्यथा अनंत योनियों में भटकने के बाद प्रलयकाल के अंधकार में पड़े रहना पड़ता है।
पूर्णमद: पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।।
सत्य सत् और तत् से मिलकर बना है, सत का अर्थ यह और तत का अर्थ वह, दोनों ही सत्य है, "अहं ब्रह्मास्मी और तत्वमसि" यानी मैं ही ब्रह्म हूँ और तुम भी ब्रह्म हो, यह संपूर्ण जगत ब्रह्ममय है, ब्रह्म पूर्ण है, यह जगत् भी पूर्ण है, पूर्ण जगत् की उत्पत्ति पूर्ण ब्रह्म से हुई है, पूर्ण ब्रह्म से पूर्ण जगत् की उत्पत्ति होने पर भी ब्रह्म की पूर्णता में कोई न्यूनता नहीं आती, वह शेष रूप में भी पूर्ण ही रहता है, यही सनातन सत्य है।
जो तत्व सदा, सर्वदा, निर्लेप, निरंजन, निर्विकार और सदैव स्वरूप में स्थित रहता है उसे सनातन या शाश्वत सत्य कहते हैं, वेदों का ब्रह्म और गीता का स्थितप्रज्ञ ही शाश्वत सत्य है, जड़, प्राण, मन, आत्मा और ब्रह्म शाश्वत सत्य की श्रेणी में आते हैं, सृष्टि व ईश्वर (ब्रह्म) अनादि, अनंत, सनातन और सर्वविभु हैं।
जड़ पाँच तत्व से दृश्यमान है- आकाश, वायु, जल, अग्नि और पृथ्वी, यह सभी शाश्वत सत्य की श्रेणी में आते हैं, यह अपना रूप बदलते रहते हैं किंतु समाप्त नहीं होते, प्राण की भी अपनी अवस्थायें हैं, प्राण, अपान, समान और यम, उसी तरह आत्मा की अवस्थायें हैं- जाग्रत, स्वप्न, सुसुप्ति और तुर्या।
ज्ञानी लोग ब्रह्म को निर्गुण और सगुण कहते हैं, उक्त सारे भेद तब तक विद्यमान रहते हैं जब तक कि आत्मा मोक्ष प्राप्त न कर ले, यही सनातन धर्म का सत्य है, ब्रह्म महाआकाश है तो आत्मा घटाकाश, आत्मा का मोक्ष परायण हो जाना ही ब्रह्म में लीन हो जाना है, इसीलिये भाई-बहनों, कहते हैं कि ब्रह्म सत्य है, और जगत मिथ्या, यही सनातन सत्य है और इस शाश्वत सत्य को जानने या मानने वाला ही सनातनी कहलाता है।
विज्ञान जब प्रत्येक वस्तु, विचार और तत्व का मूल्यांकन करता है तो इस प्रक्रिया में धर्म के अनेक विश्वास और सिद्धांत धराशायी हो जाते हैं, विज्ञान भी सनातन सत्य को पकड़ने में अभी तक कामयाब नहीं हुआ है किंतु वेदांत में उल्लेखित जिस सनातन सत्य की महिमा का वर्णन किया गया है, विज्ञान धीरे-धीरे उससे सहमत होता नजर आ रहा है।
हमारे ऋषि-मुनियों ने ध्यान और मोक्ष की गहरी अवस्था में ब्रह्म, ब्रह्मांड और आत्मा के रहस्य को जानकर उसे स्पष्ट तौर पर व्यक्त किया था, वेदों में ही सर्वप्रथम ब्रह्म और ब्रह्मांड के रहस्य पर से पर्दा हटाकर 'मोक्ष' की धारणा को प्रतिपादित कर उसके महत्व को समझाया गया था, मोक्ष के बगैर आत्मा की कोई गति नहीं इसीलिये ऋषियों ने मोक्ष के मार्ग को ही सनातन मार्ग माना है।
धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष में मोक्ष अंतिम लक्ष्य है, यम, नियम, अभ्यास और जागरण से ही मोक्ष मार्ग पुष्ट होता है, जन्म और मृत्यु मिथ्या है, जगत भ्रमपूर्ण है, ब्रह्म और मोक्ष ही सत्य है, मोक्ष से ही ब्रह्म हुआ जा सकता है, इसके अलावा स्वयं के अस्तित्व को कायम करने का कोई उपाय नहीं, ब्रह्म के प्रति ही समर्पित रहने वाले को ब्राह्मण और ब्रह्म को जानने वाले को ब्रह्मर्षि और ब्रह्म को जानकर ब्रह्ममय हो जाने वाले को ही ब्रह्मलीन कहते हैं।
सनातन धर्म के सत्य को जन्म देने वाले अलग-अलग काल में अनेक ऋषि हुयें हैं, उक्त ऋषियों को दृष्टा कहा जाता है, अर्थात जिन्होंने सत्य को जैसा देखा, वैसा कहा, इसीलिये सभी ऋषियों की बातों में एकरूपता है, और जो ऋषियों की बातों को नहीं समझ पाते वही उसमें भेद करते हैं, भेद भाषाओं में होता है, अनुवादकों में होता है, संस्कृतियों में होता है, परम्पराओं में होता है, सिद्धांतों में होता है, लेकिन सत्य में नहीं।
वेद कहते हैं ईश्वर अजन्मा है, उसे जन्म लेने की आवश्यकता नहीं, उसने कभी जन्म नहीं लिया और वह कभी जन्म नहीं लेगा, ईश्वर तो एक ही है यही सनातन सत्य हैं, सत्य को धारण करने के लिये प्रात: योग और प्राणायाम करें तथा दिनभर कर्मयोग करें, वेद-पुराणों को समझे, गौ माता और ब्राह्मण को सम्मान दें, ऋषि परंपराओं को जीवन में अपनायें, सज्जनों, यही सनातनी जीवन हैं।
हरि ओऊम् तत्सत्
जय श्री लक्ष्मीनारायण!