माँ से छीन बर्बाद किए जा रहे 32 मासूम
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माँ से छीन बर्बाद किए जा रहे 32 मासूम

आज Media इस ख़बर से नजरें चुरा रहा है कल इसके लिए तरसेगा
रो रही है 'मसूमों' के लिए 'मुस्कराहट' छीन लाने वाली 'मां'

    होश संभालने से पहले नसीब ने उनकी किस्मत में सितम लिखा, उन्हें आंसू दिए तो वह उनके लिए तकदीर से लड़ मुस्कराहट छीन लाई। उसने वक्त के थपेड़ों से 'यतीम' इन मासूमों के दर्द पीकर इनको तालीम दी ऊंची उड़ानों की, कभी न घबराने की, कभी न झुकने की। सिखलाया जीने का हुनर। दी जीने की ताकत। वह जानती थी कि उनके माथे की लकीरों में लिखने वाले ने अनगिनत मुसीबतें, चनौतियां, पीड़ा एक साथ लिख डाली हैं। वक्त उन्हें किसी न किसी बहाने तड़पाएगा। इसीलिए अपने आंचल की छांव में उनके बचपन को बेपनाह ममत्व से सींचा। उसने उनके नसीब का हर दर्द हंस कर खुद सह लिया। मगर उन्हें कभी आंच तक न आने दी। किंतु आज वह मां बिलख रही है। हर दर, हर चौखट पर फरियादी बन खड़ी है। अपने 32 मासूमों पर हुए अनगिनत सितम उसे तिल-तिल मार रहे हैं। न आंसू थम रहे हैं, न दर्द कम हो रहा है। प्रशासन ने उसके आंचल की छांव इन मासूमों के लिए नाकाफी बताते हुए उससे उसकी आंखों के तारे जो छीन लिए हैं।
    जी हां 32 बच्चों की यह मां पिछले 20 बरस से 'राधा' नाम से एक वात्सल्य गृह चला रही थी। यहां हंसते-खेलते बच्चों की एक बगिया सी थी। हिमाचल प्रदेश में Manali के समीप कल-कल बहती व्यास नदी के उस पार जहां जाने के लिए रास्ता तक नहीं था। तार पर झूलता एक झूला हिचकोले खाता आपको व्यास नदी के उस पार ले तो जाता है मगर उस बीच व्यास आपकी धड़कनों की पहरेदार बन जाती हैं। कुछ ही दिन पहले लगता था एक पक्षी ने नीड़ में अपने चूज़ों को यतन से छिपाया है।
        इस हंसती बगिया को नज़र लगी प्रशासन की और एक क्षण में सब कुछ बिखर गया। कुल्लू प्रशासन कहता है कि इस मां के पास बच्चों को रखने की वैधानिक अनुमति नहीं है, खेलने का मैदान नहीं है, पुस्तकालय नहीं है, कक्ष भी कम है, पर्याप्त स्टाफ भी नहीं है। इसी लिए इसे बंद कर देना चाहिए। बच्चों को दर-ब-दर करने का अपना फर्ज विभाग 3 दिसंबर को बखूबी निभा गया और मां के आंचल से छीन मासूमों को उन सरकारी अनाथालयों में भेज दिया गया जहां आए दिन बच्चों की प्रताड़ना, बलात्कार जैसी घटनाएं आम हैं।
    कल तक राज्यपाल से लेकर बड़े-बड़े अधिकारी, समाचार पत्र समूह जिस वात्सल्य गृह को हिमाचल का गौरव बताते हुए 32 बच्चों की इस मां 'सुदर्शना' को सम्मान देने का अवसर ढूढ़ते थे उन्हीं अधिकारियों ने आज इस मां को इन बच्चों के पालन-पोषण का अपराधी घोषित कर दिया है।
     खबर सन्न करने वाली थी इसी लिए मैं दिल्ली की अपनी तमाम व्यस्तताएं भुला कर जैसे-तैसे मनाली पहुंचा। बच्चों की चहचाहट से सदा चहकने वाला घर आज सूना-सूना लगा। बस सुनाई दी तो एक बेवस मां की हृदय विदारक पीड़ा। मां के निश्छल ममत्व भरे शब्दों ने बच्चों को पुलिस प्रशासन द्वारा 'रेस्क्यू' के नाम पर किस कदर निर्ममता से दर-ब-दर किया वह दृश्य मेरी आंखों के सामने सजीव कर दिए। वेदना भरे शब्द असहनीय पीड़ा दायक थे। जरा सोचिए दृश्य कितना हृदय विदारक व चित्कार पूर्ण होगा। आज खुद सहमी, डरी, दुबकी यह मां कभी इन नौनिहालों में शौर्य पराक्रम के मंत्र फूंका करती थी। मैं उन पलों का इकलौता गवाह हूं जिसने इस 'वात्सल्य गृह' को पहली बेटी शैली के प्रवेश से आज तक पल-पल बढ़ते देखा है। मैंने उस मां की अनंत पीड़ाएं कभी देखी तो कभी परिस्थिति वश अनदेखी कर उसके अनुपम धैर्य, साहस एवं क्षमता को मन ही मन नमन किया। इन 20 वर्षों की लंबी यात्र के कुछ चंद उदाहरणों में एक है 'श्रृष्टि' की यादें। यह बच्ची आज 9 वर्ष की है। मुझे वह दिन याद है जब इसकी नानी इस एक दिन की बच्ची को इस वात्सल्य घर में लाई थी। जब यह बच्ची गर्भ में छह माह की थी तो इस अजन्मी बच्ची के पिता की एक बाईक दुर्घटना में मौत हो गई। 3 महा बाद इसे जन्म देते ही इसकी मां भी चल बसी। कहते हैं कि पति की मौत के बाद इसकी मां ने खान-पीना छोड़ दिया था। इस बच्ची की पहली किलकारी के साथ मां इसे हमेशा, हमेशा के लिए छोड़ गई तो हमारे तथाकथित सभ्य समाज ने एक दिन की इस मासूम को मनहूस करार दिया। नानी जैसे-तैसे इसे एक फटे तौलिए में लपेट इस घर तक लाई। जगत की निष्ठुरता को नानी ने भी निभाया और वह फटा टावल भी वापस मांग ले गई जिसमें इस नन्हीं जान को लपेट लाई थी।
       एक और नाम है अनुजा 'काल्पनिक नाम' अनुजा 8 साल की थी जब उसके मजदूर मां-बाप धुंधी में मज़दूरी करते थे। एक रात अचानक बादल फटा तो अनुजा की मां कालकलवित हो गई। कलयुगी बाप ने पत्नी के देहांत के बाद बेटी को हवश का शिकार बनाना शुरू कर दिया। लगातार हवश का शिकार होती रही अनुजा 11 साल की उम्र तक पहुंचते-पहुंचते गर्भवती हो गई। पढ़ोसियों को भनक लगी तो पुलिस तक मामला पहुंचा। इस बिन मां की बच्ची के सिर से अत्याचारी बाप का साया उठ जाने से यह बच्ची पेट में बढ़ते अपने ही 'बाप के पाप' के साथ यतीम हो गई। समाज इस घटना को सुन नाक, भौं सिकोड़ने लगा। तो राधा के विशाल हृदय ने इसे भी गले लगा लिया।
     राधा ऐसे ही समाज के ठुकराए बच्चों का वात्सल्य घर था। सुदर्शना के यत्न एवं मार्गदर्शन ने इन बच्चों को सबसे पहले परिवार का एहसास दिलाया और फिर शुरू हुई इन बच्चों के भविष्य को संवारने की कवायद। बच्चों को डीपीएस जैसे उच्च स्तारीय स्कूलों में तालीम दिलवाई जाने लगी। वात्सल्य घर के कुछ बच्चे तो अब 11वीं, 12वीं की परीक्षा तक पास कर चुके हैं। कुछ बेटियां अपना घर बसा चुकी हैं और कुछ शिक्षा हासिल करने के बाद नौकरी भी करने लगी हैं। सुदर्शना इन बच्चों को पहले सपना देखना सिखाती और फिर संस्कारों की कूची से उन सपनों में रंग भरना शुरू कर देती। मगर सरकार के इस असंवेदनशील फरमान ने उनके तमाम रंग बिखेर डाले। 'राधा' सुदर्शना के आंसू रो रही है।
आसान न थी डगर:
    सुदर्शना ने इन बच्चों के भाग्य की बदनसीबी कदम-कदम खुद हंस कर भोगी। बात संभवतयः 1999 की होगी। तब मैं मनाली में अमर उजाला हिंदी दैनिक का पत्रकार हुआ करता था। हल्की बरसात, सर्द वातावरण में ठिठरन पैदा कर रहा था। सुदर्शना कांपते हुए मेरे पास आई और बिना रूके करीब 15 मिनट बोलती चली गई। दरअसल इंशोरेंस कंपनी का एक अधिकारी उन्हें बेसहारा समझ उन्हीं के सिलाई सैंटर के क्लेम के एवज़ में उनके साथ एक रात बिताना चाहता था। वह इसके बदले उन्हें क्लेम बढ़ाने का भी लालच दे रहा था। खैर शक्ति का पुंज कही जाने वाली सुदर्शना का रौद्र रूप उस अधिकारी ने बखूबी भोगा। उसकी नौकरी पर बन आई तो सुदर्शना ने एक बार फिर अपनी विशाल हृदयता का परिचय देते हुए उसे माफ कर दिया।
     बच्चों को भूखा रखने का नियति ने षड़यंत्र किया तो इस मां ने बच्चों का पेट भरने के लिए सहुकारों से मोटे ब्याज पर कर्ज लेकर अपनी ममता की परीक्षा दी। कर्ज की किस्तें समय पर न भर सकी व साहूकारों की गंदी शर्तों को मानने से इन्कार कर दिया तो देह के भूखे धनाड्यों ने ममता की इस मूरत को निर्ममता से सलाखों के पीछे पहुंचा दिया। मगर उसे तो बच्चों के भविष्य क लिए समाज का हर दर्द, हर जुल्म सहना था सो हंस कर सहती चली गई। बिना एक भी पाई की सरकारी मदद व आय के निश्चित स्त्रोत के अभाव में कई दफा खाने के लाले पड़ने लगे तो खुद्दारी को हाथियार बना लिया। सब्जी की दुकानों से फेंके गए गोभी के डंठल व मूली के पत्ते यह कहकर उठा लाती कि गाय के चारे के लिए ले जा रही हूं और उन्हीं डंठलों की साफ-सफाई कर उससे सब्जी, अचार इत्यादि तैयार कर अपना व अपने इन नौनिहालों का पेट भरती और उन्हें किसी भी अभाव का एहसास तक न होने देती ममत्व की ऐसी मिसाल संभवतयः इतिहास में न मिल सके जब किसी मां ने समाज के ठुकराए मासूमों को इस भांति गले लगा लिया हो।
    4 दिसंबर को मनाली पहुंचा तो पता चला कि बच्चों को खरोंच आने पर तड़प उठने वाली यह मां अपने आठ साल पुराने एक मामूली जख्म का ईलाज करवाना तक भूल गई, यह जख्म अब नासूर सा बन गया है। डाॅक्टर कहते हैं कि जख्म हड्डी तक पहुंच गया है पर इस मां को अपनी फिक्र कब थी ? जो अब होगी। आज भी अपना दर्द भुला वह अपने नन्हें मासूमों की बाट जोह रही है, कि काश कोई लौटा दे उनके कलेजे के टुकड़ों को और फिर चहक उठे राधा का आंगन।

(गोपाल शर्मा, दिल्ली)

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