दुनिया भर में फैले वैश्विक महामारी कोविड-19 से मरने वालों की संख्या हर दिन बढ़ती जा रही हैं. अब तक इस खतरनाक वायरस की चपेट में आकर 1.65 लाख से ज्यादा लोग अपनी जान गवा बैठे हैं. दुनियाभर के वैज्ञानिक इसके बारे में जानकारी जुटाने में अपना दिन रात एक कर रहे है. कुछ शोधकर्ताओं का मानना है कि यह चमगादड़ों से इंसानों तक पहुंचा, वहीं कुछ का कहना है कि इसे प्रयोगशाला में बनाया गया है. पर इसे लेकर अभी तक कोई पुख्ता सबूत नहीं मिले हैं, लेकिन क्या हम सब जानते हैं कि सबसे पहले मनुष्य में कोरोना वायरस की खोज किसने की थी. इस वायरस के बारे में कैसे सबसे पहले पता चला था. आइए जानते हैं उस महिला वैज्ञानिक की कहानी, जिसने सबसे पहले कोरोना वायरस की खोज की थी -
कुदरत ने बनाए हुए इंसानों में कोरोना वायरस को सबसे पहले महिला वैज्ञानिक जून अल्मेडा ने 1964 में खोजा था. एक बार वह अपने इलेक्ट्रॉनिक माइक्रोस्कोप में देख रही थीं. उसी वक्त उन्हें एक वायरस नजर आया जो आकार में गोल था और चारों तरफ कांटों से घिरा था. यही वो समय था जब सबसे पहले इस वायरस के बारे में मालूम हुआ था. इसके बाद इस वायरस का नाम कोरोना वायरस रखा गया था.
जून अल्मेडा का जन्म 1930 में स्कॉटलैंड के ग्लासगो शहर के उत्तर-पूर्व में स्थित एक बस्ती में रहने वाले बेहद साधारण परिवार में हुआ था . वैसे उनके पिता बस ड्राइवर थे. उनके घर की आर्थिक स्थिति भी सही नहीं थी. जिस कारण उन्हें 16 साल की उम्र में ही पढ़ाई छोड़नी पड़ी. इसके बार उन्होंने ग्लासगो की ही एक लैब में बतौर टेक्नीशियन नौकरी शुरू की. वक्त के साथ उनका इस काम में मन लगने लगा. वह उन विषाणुओं की पहचान करती थीं, जिनकी संरचना पहले अज्ञात थी. आगे उन्होंने इसी काम में अपनी करियर बनाने का निर्णय लिया. इसके बाद उन्होंने नई संभावनाएं तलाशने के लिए लंदन का रूख किया. यहां उन्होंने सेंट बार्थोलोमियूज अस्पताल में लैब टेक्नीशियन के तौर पर काम शुरू किया. 1954 में जून अल्मेडा वेनेजुएला के कलाकार एनरीके अलमेडा से शादी कर ली. फिर शादी के बाद वह पति संग कनाडा चली गई इसके बाद उन्होंने टोरंटो के ओंटारियो कैंसर इंस्टीट्यूट में बतौर इलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोपी टेक्निशियन जॉइन किया. इस दौरान उन्होंने एंटी बॉडीज का इस्तेमाल कर वायरस को बेहतर तौर पर समझने की कोशिश की. उनकी प्रतिभा का सम्मान करते हुए 1964 में लंदन के सेंट थॉमस मेडिकल स्कूल ने उन्हें नौकरी का ऑफर दिया. (ज्ञात हो के ये वही अस्पताल है जहां कोरोना वायरस से संक्रमित होने के बाद ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन का ट्रीटमेंट किया गया था.)
लंदन में जून अल्मेडा ने डॉ डेविड टायरेल के साथ रिसर्च करना शुरू किया. उस दौरान डॉ. टायरेल और उनकी टीम सामान्य सर्दी-जुकाम पर शोध कर रही थीं. इस शोध के लिए उन्होंने जुखाम के दौरान नाक से बहने वाले तरल पदार्थ के कई नमूने एकत्र किए थे. इन नमूनों में जुखाम के दौरान पाए जाने वाले वायरस नजर आए. उसमें से किसी एक नमूने को बी-814 नाम दिया गया था. क्योंकि वो बाकी दूसरे नमूनों से अलग था. डॉक्टर टायरेल ने इस नमूने को जून अल्मेडा को इलेक्ट्ऱन माइक्रोस्कोप से जांच के लिए दिया. जून अल्मेडा ने इसकी जांच कर बताया कि यह देखने में इनफ्लूएंजा की तरह है लेकिन उससे अलग है. यहीं नहीं जून अल्मेडा ने सबसे पहले इसकी तस्वीरें भी निकाली. इसी वायरस की पहचान बाद में जून अल्मेडा ने कोरोना वायरस के तौर पर की.
जून अल्मेडा ने जब इस वायरस को लेकर एक रिसर्च पेपर भी लिखा था, जिसे यह कहकर खारिज कर दिया गया था कि उन्होंने इन्फलूएंजा वायरस की खराब तस्वीरों को पेश किया है. उस वक्त किसी ने उनकी बात नहीं मानी थी डॉ. जून अल्मेडा और टायरेल जानते थे कि वे एक प्रजाति के वायरस के साथ काम कर रहे हैं. इसके चारों तरफ क्राउन संरचना थी जिस वजह से उन्होंने इसे कोरोना नाम दिया था. दो साल बाद उनके द्वारा संख्या बी-814 से की गई इस खोज को जर्नल ऑफ जेनेरल वायरोलॉजी में तस्वीर के साथ प्रकाशित किया गया. 2007 में जून अल्मेडा का 77 की उम्र में निधन हो गया. लेकिन उनके मृत्यु के 13 साल बाद कोरोना वायरस संक्रमण को समझने में उनके जरिए की गई रिसर्च की अब मदद मिल रही है.