सरकार एमएसपी की गारंटी का कानून क्यों नहीं बनाती?
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सरकार एमएसपी की गारंटी का कानून क्यों नहीं बनाती?

  आप एमएसपी को एक उदाहरण समझ सकते हैं उदाहरणतः आटे को लिया जा सकता है। यह विश्लेषण बाजार में बिकने वाले और पीडीएस (सार्वजनिक वितरण प्रणाली) सिस्टम के बारे में है। अभी, जब एमएसपी सरकार घोषित करती है वह सरकारी खरीद के लिए करती है और यही अन्न पीडीएस और कोरोना काल में मुफ्त, भोजन के अधिकार के तहत दिया गया है। सरकार उतनी ही खरीद करती है जो इन दोनों माध्यमों से देश के आर्थिक रुप से विपन्न और गरीबी रेखा के नीचे वालों के सामान्य और महामारी जैसे काल में आपूर्ती कर सके। 
   यदि सरकार एमएसपी को कानूनी दर्जा दे दे तो अभी जो खरीद वैकल्पिक और सीमित है वह सरकार पर बाध्यकारी हो जाएगा। कोई भी किसान कोर्ट में अर्जी लगाकर कह सकता है कि मेरा गेहूं खुले बाजार में एमएसपी पर कोई नहीं ले रहा, इसलिए सरकार खरीदे। 
     इस तरह सरकार का सारा राजस्व सरकारी खरीद में चला जाएगा। अगला सवाल यह कि सरकार इस खरीद का करेगी क्या, रखेगी कहां? जबकि वैश्विक जगत में इसके निर्यात की संभावना शून्य है। आयातित दाल, मक्का आदि की वैश्विक कीमतें भारत की एमएसपी से ही नहीं खुले बाजार की कीमतों से भी कम है क्योंकि विकसित देशों में कृषि पर भारी सब्सिडी दी जाती है। 
    मान लीजिए अगर एमएसपी लागू भी हो गया तो अत्यधिक उत्पादन के कारण जो गेहूं खुले बाजार में व्यापारी (बिचौलिया) 1200–1500 प्रति क्विंटल खरीदकर उसे खुले बाजार में 2000–2500 रु. प्रति क्विंटल बेच रहा है उसी की वजह से इस समय आटा बाजार( सामान्य और ब्रांडेड) मे 3000–4000 रु. प्रति क्विंटल बिक रहा है जो वर्तमान एमएसपी (लगभग 2000 रु.प्रति क्विंटल) के हिसाब से बिचौलिया खरीदता तो इस समय आटा 5000–7000 रु. प्रति क्विंटल बाजार में बिक रहा होता। 
    अन्तत: हमेशा की तरह बढ़ी हुई एमएसपी का बोझ भी मध्यम वर्ग के उपभोक्ता के सिर पर ही आएगा। इसके बाद बढ़ती मंहगाई के लिए मध्यम वर्ग शोर मचाना शुरु कर देगा। इसलिए सरकार कोई भी हो, 1967 से चली आ रही इस प्रक्रिया को बदल कर बर्रे के छत्ते में हाथ नहीं डालेगी। मध्यम मार्ग एक ही हो सकता है कि सरकार प्रो. स्वामीनाथन के सीटू + 50% का फर्मूला वर्तमान एमएसपी के निर्धारण में लागू कर अपनी जान छुड़ाए। एमएसपी को कानूनी जामा पहनाना बोलने में जितना आसान दिखता है लागू करने में देश की पूरी अर्थव्यवस्था चौपट हो जाएगी। कुछ महीने पहले जब आलू की कीमतें अगस्त 2020 से बढ़नी शुरू हुई तो इसकी जानकारी के लिए क्योरा पर लोगों से इसका भाव पूछा गया था। तब कुछ लोगो ने हमें लन्तरानी शैली में प्रश्न का मजाक उडा़ने लगे लेकिन वही जब 50/— रु. प्रति किलो बिकने लगा तो ऐसे ही लोग "आलू ने मार डाला " चिल्लाने लगे। वैसे लन्तरानी हांकने में कुछ जाता थोड़े ही है!
    MSP देने में एक समस्या ये भी है जो की पंजाब में देखी गयी है जमीन के एक जैसी फसल उगाने से पैदा हुई दिक्कतें और पानी का दोहन। ईस बात को कोई जिक्र नहीं करता न सरकार और न ही कोई संगठन। जब ज़मीन की उर्वर क्षमता कम हो जाएगी तब क्या होगा क्या इस बात के लिये हम तैयार हैं?
    पंजाब में व्यवसायिक खेती के कारण वहां का भूगर्भ जल स्तर खतरनाक स्तर यानी 500–600 फीट तक नीचे चला गया है। मैंने तो इसके सिर्फ आर्थिक पक्ष को अपने रोजमर्रा के उदाहरण के माध्यम से छूने का प्रयास किया है। जिनके पास आय के वैध अवैध स्रोत हैं, जो कभी बाजार में जाते नहीं, उनके पास दूसरे और जरुरी काम रहते हैं उन्हें ऐसे विश्लेषणों से क्या लेना-देना हो सकता है।

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